इतिहास बोलता है … महाराष्ट्र जहां छुआछूत के खिलाफ लड़ी गई कई अहम् लड़ाई

तारीख: 1 जनवरी 1818

जगह: पुणे के करीब भीमा कोरेगांव

पेशवा बाजीराव द्वितीय की अगुआई में 28 हजार मराठा अंग्रेजी कब्जे वाले पुणे पर हमला करने की योजना बना रहे थे। रास्ते में उन्हें 800 सैनिकों वाली ईस्ट इंडिया कंपनी की एक सैन्य टुकड़ी मिली। इसकी कमान कैप्टन फ्रांसिस स्टॉन्टन के हाथ में थी, लेकिन ज्यादातर सैनिक भारतीय मूल के महार दलित थे।

ब्रिटिश इतिहासकार जेम्स ग्रांट डफ अपनी किताब ‘ए हिस्ट्रीज ऑफ मराठाज’ में लिखते हैं कि पेशवा ने इस टुकड़ी पर हमला करने के लिए अपनी सेना भेज दी। महार सैनिकों से सजी कंपनी फोर्स ने अपने से कई गुना बड़ी पेशवा की सेना को कामयाब नहीं होने दिया।

एक अनुमान के मुताबिक इस लड़ाई में पेशवा के 500 से ज्यादा सैनिक हताहत हुए, जबकि कंपनी के मारे गए और घायल हुए सैनिकों की संख्या करीब 275 थी। आखिरकार मराठों ने कदम खींच लिए। महाराष्ट्र के दलित नेता आज भी मराठों पर ब्रिटिश फौज की इस जीत का जश्न मनाते हैं। इस घटना की 200वीं सालगिरह पर 2018 में भीमा कोरेगांव में हिंसा भी हुई थी।

इतिहासकारों ने कई जगह लिखा है कि पेशवाओं के शासन के दौरान नगर में प्रवेश करते समय महारों को अपनी कमर में एक झाड़ू बांध कर चलना होता था, जिससे उनके पैरों के निशान मिटते चले जाएं। उन्हें अपने गले में एक बर्तन भी लटकाना होता था। वो सिर्फ उसी बर्तन में थूक सकते थे, ताकि उनके थूक से कोई सवर्ण अपवित्र न हो जाए।

अछूत मानी जाने वाली जातियों के लोग सवर्णों के कुएं या तालाब से पानी नहीं पी सकते थे और न ही उन्हें मंदिर जाने की इजाजत थी। पेशवाओं ने अपनी सेना में महारों को नहीं रखा था। इसी वजह से महार जैसी जातियों के लोग ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज में भर्ती हो गए। दलित नेता भीमा कोरेगांव में हुए युद्ध को ब्राह्मणों पर दलितों की जीत के तौर पर देखते हैं।

छुआछूत, जातियों में भेदभाव और समाज में असमानता की वजह से महाराष्ट्र की धरती पर कई सामाजिक आंदोलन हुए…

महाड सत्याग्रहः अछूतों को पानी का अधिकार दिलाने की लड़ाई महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के महाड तालुका में एक सार्वजनिक तालाब था। वहां मवेशी पानी पी सकते थे, लेकिन अछूतों को पानी लेने की मनाही थी। कुछ अछूत समुदाय के लोगों ने कोशिश की तो उन्हें पीटा गया। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 1927 में अछूतों को तालाब से पानी पीने का अधिकार दिलाने के लिए आंदोलन शुरू किया।

डॉ. अंबेडकर ने अदालत को बताया कि यह झील महाड़ नगर निगम की जमीन पर बनी हुई है। यहां से केवल सवर्ण हिंदुओं को पानी लेने की अनुमति है। जानवरों को काटने वाले खटीक मुस्लिमों को भी यहां से पानी नहीं लेने दिया जाता है।

कोर्ट ने अंबेडकर की दलील को स्वीकार करते हुए इसे सभी के लिए खोलने का निर्देश दिया। साथ ही कहा कि यह फैसला किसी एक झील या तालाब तक सीमित नहीं है। किसी को उसकी जाति या सामाजिक आधार पर पानी लेने से मना नहीं किया जा सकता।

डॉ. अंबेडकर ने अपने चर्चित बयान में कहा….

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हम सिर्फ तालाब से पानी पीने नहीं जा रहे हैं, बल्कि हम यह कहना चाह रहे हैं कि हम भी अन्य लोगों की तरह मनुष्य हैं।

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कालाराम मंदिर में प्रवेशः जब अंबेडकर की अगुआई में मंदिर पहुंचे हजारों दलित महाराष्ट्र में गोदावरी नदी के किनारे बसे नाशिक के पंचवटी इलाके में भगवान राम का एक मंदिर है, जो कालाराम मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। यहां भगवान राम, सीता और लक्ष्मण की काले पत्थर की प्रतिमाएं हैं, लेकिन इसमें केवल ऊंची जाति के लोगों को प्रवेश की अनुमति थी।

1930 में डॉ. भीमराव अंबेडकर और मराठी शिक्षक पांडुरंग सदाशिव साने के नेतृत्व में कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह शुरू हुआ। तय किया गया कि सभी लोग 4 टुकड़ियों में बंटकर मंदिर के चारों द्वारों पर धरना देंगे। इस दौरान अंबेडकर ने कहा…

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हम मंदिर नहीं जाना चाहते, लेकिन हमें अधिकार मिलना चाहिए।

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पूरे बॉम्बे प्रोविंस से ट्रकों में भरकर करीब 15 हजार दलित नाशिक पहुंचे और मंदिर के चारों ओर धरना देना शुरू किया। तत्कालीन बॉम्बे सरकार ने इलाके में कर्फ्यू लगा दिया। 9 अप्रैल 1930 को राम नवमी जुलूस को आंदोलनकारियों ने रोकने की कोशिश की। इसमें पत्थरबाजी की घटना हुई।

लेखक धनंजय कीर अपनी किताब ‘डॉ. अंबेडकर: लाइफ एंड मिशन’ में लिखते हैं, ‘बाबासाहेब मौके पर पहुंचे और उन्होंने स्थिति को नियंत्रित किया।’

इंपीरियल काउंसिल और बॉम्बे हाई कोर्ट भी सत्याग्रह के पक्ष में नहीं थे। अप्रैल 1933 में फिर से सत्याग्रह शुरू करने के प्रस्ताव पर अंबेडकर ने अपनी सहमति नहीं दी। अंबेडकर का मानना ​​था कि उन्हें मूर्तिपूजा में शामिल होने के बजाय शिक्षा और राजनीति पर ध्यान देना चाहिए। कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह के बाद अंबेडकर ने ऐसे किसी आंदोलन में भाग नहीं लिया। भारत को आजादी मिलने के बाद इस मंदिर में अछूतों को प्रवेश मिला।

पूना पैक्टः जब दलित आरक्षण के लिए भिड़े गांधी और अंबडेकर 16 अगस्त 1932 को अंबेडकर की कोशिशों से ब्रिटिश सरकार ने दलितों को अलग निर्वाचन क्षेत्र और 2 वोट का अधिकार दिया। दो वोट का अधिकार यानी दलित एक वोट से अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे और दूसरे वोट से वो सामान्य वर्ग के किसी प्रतिनिधि को चुन सकते थे।

महात्मा गांधी इसके खिलाफ थे। उनका मानना था कि इससे एक ही समाज में दलित हिंदुओं से अलग हो जाएंगे। 18 सितंबर 1918 को गांधी ने ऐलान कर दिया कि अगर ये फैसला वापस नहीं हुआ तो मरते दम तक उपवास करेंगे।

डॉ. भीमराव अंबेडकर के लिए महात्मा गांधी का ये कदम किसी झटके की तरह था। वो गुस्से से भर उठे। यहां तक कि गांधी के इस कदम को अंबेडकर ने एक चाल बता दिया। कांग्रेस के नेताओं ने अंबेडकर को समझौते के लिए मनाने की कोशिश की।

22 सितंबर 1918 को अंबेडकर गांधी से मिलने पुणे की यरवदा जेल पहुंचे। गांधी के सेक्रेटरी महादेव देसाई के नोट्स के मुताबिक अंबेडकर ने कहा कि वे दलितों के लिए पॉलिटिकल पॉवर चाहते हैं। यह उनकी बराबरी के लिए जरूरी है। दोनों अपनी जिद पर अड़े रहे।

अंबेडकर ने अपने दोस्त और तमिल नेता एमसी राजा से इस बारे में बात की। राजा ने अंबेडकर को समझाया। उन्होंने कहा कि देश के लोग दलितों के बारे में हमेशा यही मानसिकता बनाए रखेंगे कि इन लोगों ने गांधीजी की जान के लिए भी समझौता नहीं किया।

आखिरकार 25 सितंबर की शाम 5 बजे पूना पैक्ट साइन हुआ। समझौते में तय हुआ कि दलित भी अपर कास्ट हिंदुओं के साथ ही वोट करेंगे। ब्रिटिश सरकार ने दलितों के लिए 71 सीट्स दी थीं, जिन्हें बढ़ाकर 148 कर दिया गया। सी राजगोपालचारी ने अंबेडकर के साथ फाउंटेन पेन बदलकर समझौते पर मुहर लगाई।

Source: https://www.bhaskar.com/

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